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झलकारी बाई की जयंती कब व क्यों मनाई जाती हैं पूरी जानकारी पढ़िए

 क्या आपने झलकारी बाई का नाम सुना है? रानी लक्ष्मीबाई जिनकी वजह से अंग्रेजों से जिंदा बच सकी उन महारानी झलकारी बाई की आज जयंती है। रानी लक्ष्मीबाई की कथा, कहानियों को खूब सराहा गया, खूब पढ़ा, लिखा और जाना गया। उसी इतिहास में झलकारी बाई भी है जिनका अधिक वर्णन नहीं सुना होगा? 


आज भारत के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम की महान वीरांगना "झलकारी बाई" का जन्मदिन (22 नवम्बर 1830)  है । तत्कालीन समय में झलकारी बाई को औपचारिक शिक्षा प्राप्त करने का अवसर तो नहीं मिला किन्तु वीरता और साहस का गुण उनमें बालपन से ही दिखाई देता था। किशोरावस्था में झलकारी की शादी झांसी के पूरनलाल से हुई जो रानी लक्ष्मीबाई की सेना में तोपची थे। 


झलकारीबाई शुरुआत में घेरलू महिला थी पर बाद में धीरे–धीरे उन्होंने अपने पति से सारी सैन्य विद्याएं सीख ली और एक कुशल सैनिक बन गईं। झलकारी की प्रसिद्धि रानी झाँसी भी पहुँची और उन्होंने उसे सैनिक बना दिया। झलकारी बाई झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई की सेना के महिला दस्ते दुर्गा दल की सेनापति थी, उनकी वीरता के चर्चे दूर-दूर तक थे। शस्त्र संचालन और घुड़सवारी में निपुण साहसी योद्धा झलकारी की शक़्ल लक्ष्मीबाई से हूबहू मिलती थी। 


डलहौज़ी की हड़प नीति के तहत अप्रैल,1858 में जब झाँसी राज्य को हड़पने के लिए जनरल ह्यूगरोज़ ने झाँसी पर आक्रमण किया तब लक्ष्मीबाई ने कुछ समय युद्ध का नेतृत्व किया, अपने सेनानायक दूल्हेराव के धोखे के कारण जब झाँसी किले का पतन निश्चित हो गया तो लक्ष्मीबाई अपने विश्वस्त सैनिकों के साथ किले से भाग गई और युद्ध का नेतृत्व झलकारी ने अपने हाथों में ले लिया। उसने लक्ष्मीबाई की तरह वेश धारण करके सेना की कमान संभाली  और डटकर अंग्रेजों का मुकाबला किया। इसी बीच पीछे से लक्ष्मीबाई किले से भागकर बहुत दूर चली गई।


किले की रक्षा करते हुए झलकारी का पति पूरन भी शहीद हो गया। पति की लाश देखकर भी बिना शोक मनाने की बजाय बिना विचलित हुए उन्होंने सेना का नेतृत्व किया और किले से निकल कर जनरल ह्यूगरोज़ के शिविर में पहुँची। पहले झलकारी को ही रानी झाँसी समझा गया बाद में यह भेद भी खुल गया। जब ह्यूरोज़ ने उनसे पूछा कि उनके साथ क्या किया जाना चाहिए तो झलकारी ने जवाब दिया कि मुझे फाँसी दे दी जाए।


झलकारी की नेतृत्व क्षमता और साहस देखकर ह्यूगरोज़ भी दंग रह गया। उसने झलकारी के सम्मान में कहा था कि-' यदि भारत की 1% महिलाएँ भी झलकारी की जैसी हो जाएं तो ब्रिटिशों को जल्दी ही भारत छोड़ना होगा। बाद में झलकारी को फाँसी दे दी गई या रिहा कर दिया गया जिसकी पुख़्ता सूचना नहीं मिलती। इसपर the print का एक लेख पढ़ने लायक है जो मणिकर्णिका फ़िल्म से लेकर रानी लक्ष्मीबाई और झलकारीबाई को ठीक से इंगित करता है।👇


फिल्म मणिकर्णिका में वीरांगना झलकारी बाई किसी फुटनोट की तरह आई हैं. अगर आपका ध्यान थोड़ा सा भटक गया या पॉपकॉर्न की तरफ चला गया तो आपको फिल्म देखते हुए पता भी नहीं चलेगा कि झलकारी बाई (कंगना उसे झलकरी कहती हैं) कब आई और कब चली गई.


ठीक उसी तरह जैसे उनके बारे में इतिहास की किताबों में पढ़ाया जाता है. इतिहास के टेक्स्ट बुक झलकारी बाई के बारे में नहीं बताते. इस मामले में फिल्म उदार है. मणिकर्णिका में झलकारी बाई हैं. उनके हिस्से में चार से पांच मिनट हैं. एक आइटम सॉन्ग हैं और उनकी शहादत की सीन है. इसलिए फिल्मकारों के प्रति हमें आभारी होना चाहिए.


फिल्म की बात करें तो झलकारी बाई अपने पति के साथ एक सीन में आती हैं और उलाहना देती हैं कि खेत में खड़े रहने से क्या फायदा. इस तरह उनका बच्चा तो हो नहीं रहा है. दूसरे दृश्य में वे अपनी गाय के बछड़े को बचाने के लिए अंग्रेज़ों से गुहार लगाती हैं, लेकिन अंग्रेज़ बछड़े को ले जाते हैं. तीसरे सिक्वेंस में रानी बछड़े को अंग्रेज़ों के पास से बचाकर ले आती हैं. रानी कहती हैं गाय का दूध पिलाओ.


अछूत जाति की झलकारी बाई दूध का गिलास मचिया पर रख देती हैं. रानी कहती हैं हाथ से गिलास पकड़ाओ. झलकारी ऐसा ही करती हैं. उनके गांव आने की खुशी में झलकारी बाई और गांव वाले नाचते हैं, और रानी भी नाच में शामिल हो जाती हैं. इसके बाद झलकारी रानी की सेना में शामिल होती हैं और अंग्रेज़ों का मुकाबला करती हैं और ढेर सारे बारूद को आग लगाकर विस्फोट कर देती हैं, जिससे वे खुद और कई अंग्रेज़ भी मर जाते हैं.


1857 में झांसी के किले के अंदर क्या हुआ, ये बात सिर्फ एक व्यक्ति ने लिखी है और वह व्यक्ति झांसी की रानी की जाति का यानी ब्राह्मण था. झांसी के किले में कौन बहादुरी से लड़ रही थी और कौन बिना लड़े किले से निकल कर चली गई और किले से निकल जाने में भी कैसे बहादुरी थी, ये सब आख्यान हम उसी ब्राह्मण विष्णु भट्ट गोडसे की लिखी बातों से जानते हैं. झांसी के किले की घटनाओं का एकमात्र स्रोत.


इतिहास हमेशा विजेता लिखते हैं. हर दौर में वही इतिहास पढ़ाया जाता है, जिसका राजनीति, समाज और संस्कृति पर आधिपत्य होता है. झांसी की लड़ाई में लक्ष्मीबाई विजेता नहीं थीं, लेकिन इतिहास लिखने के लिए उनकी बिरादरी का एक शख्स मौजूद था, जो भारतीय समाज व्यवस्था के शिखर पर मौजूद था. अंग्रेजों के जाने के बाद भारत की सामाजिक सत्ता के शिखर पर काबिज हुई जाति अपने नायक और नायिकाओं को स्थापित कर पा रही है. ऐसे में दलित और पिछड़े नायक और नायिकाओं का हाशिए पर चले जाना स्वाभाविक है.


दलित-बहुजन साहित्यकारों के प्रयासों से झलकारी बाई को अब मान्यता मिलने की शुरुआत हुई है, जिसकी वे हमेशा से हकदार थीं. भारत सरकार ने 2001 में उनकी स्मृति में डाक टिकट जारी किया है.


मणिकर्णिका फिल्म भी यही कहती है कि झांसी की रानी अपना राजपाट अपने बेटे के लिए बचाने की कोशिश कर रही थीं. उन्होंने अंग्रेज़ी हुकूमत को चिट्ठी लिखकर गुज़ारिश की थी कि झांसी की गद्दी पर उनके दत्तक पुत्र को वारिस मान लिया जाए. अगर ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी ने झांसी की गद्दी पर उनके बेटे दामोदर राव का अधिकार स्वीकार कर लेतीं, तो झांसी की भूमिका 1857 में कुछ और होती और मुमकिन है कि सिंधिया की तरह वे भी अंग्रेज़ों का साथ दे रही होतीं.


लेकिन झलकारी बाई किसके लिए लड़ रही थीं? उनका मोटिवेशन क्या था? क्या उनकी भावना लक्ष्मीबाई से ज़्यादा पवित्र और उदात्त नहीं थीं? लेकिन झलकारी बाई की कहानी लिखने वाला उस समय झांसी में कोई नहीं था. आज़ादी के बाद भी उनकी कहानी लिखने और उस कहानी को टेक्स्ट बुक में शामिल करने वाला कोई नहीं है. झलकारी बाई, ऊदा देवी पासी, अवंती बाई लोधी, माहावीरी देवी, आशा देवी गुर्जर जैसी वंचित जातियों की वीरांगनाओं की कथा इतिहास में न होने पर राम दयाल वर्मा ने ये पंक्तियां लिखी हैं 


यत्र तत्र सर्वत्र मिलेगी, उनकी गाथाओं की चर्चा, किंतु उपेक्षित वीरांगनाओं का कभी नहीं छपता पर्चा. इतिहासकार चारू गुप्ता का ईपीडब्ल्यू में छपा एक रिसर्च पेपर इतिहास लेखन की इन कमज़ोरियों को दर्ज करता है और बताता है कि कैसे अब दलित और बहुजन साहित्य में इन्हें स्थान दिलाने की कोशिश की जा रही है. चूंकि उनके पास कोई रेकॉर्ड या दस्तावेज नहीं है, इसलिए लोक गाथाओं और किस्से-कहानियों-कविताओं से काम चलाया जा रहा है.


आज भी सिर्फ दलित और आंबेडकरवादी लोग ही झलकारी बाई की बात करते हैं और कहते हैं कि झांसी की रानी तो लड़ने से हिचक रही थीं, वो तो वीरांगना झलकारी बाई थी, जिसने अंग्रेज़ों से असली लड़ाई लड़ी. झांसी की शेरनी कविता में जगन्नाथ प्रसाद शाक्य लिखते हैं.


खूब लड़ी झलकारी तू तो, तेरी एक जवानी थी 

दूर फिरंगी को करने में, वीरों में मर्दानी थी 

हरबोलों के मुंह से सुनी हमने तेरी ये कहानी थी 

रानी की तुम साथिन बनकर, झांसी फतह करानी थी 

दतिया फाटक रौंद फिरंगी, आगे बढी झलकारी थी 

काली रूप भयंकर गर्जन, मानो कडक दामिनी थी, 

कोई फिरंगी आंख दिखाए, धड से सिर उतारी थी.


झलकारी बाई के बारे में अब कई किताबें और ढेर सारा साहित्य उपलब्ध है. मोहनदास नेमिशराय की किताब वीरांगना झलकारी बाई, अनसुया अनु की भारत सरकार के प्रकाशन विभाग से प्रकाशित झलकारी बाई, कल्चरल पब्लिशर्स से प्रकाशित माता प्रसाद सागर की अछूत वीरांगना, मुकेश प्रिंटर्स ग्वालियर से छपी जगन्नाथ प्रसाद शाक्य की दो किताबें, झांसी की शेरनी और झलकारी बाई का जीवन चरित्र, अलीगढ़ के आनंद साहित्य सदन से प्रकाशित शंकर विशारद की वीरांगना झलकारी बाई प्रमुख हैं. इसके अलावा शीलबोधि ने अपेक्षा पत्रिका के अप्रैल-जून 2005 अंक में झलकारी: एक ऐतिहासिक करवट लेख लिखा है. ऐसे अन्य लेख और पुस्तिकाएं बेशुमार हैं. लेकिन झलकारी बाई को मुख्यधारा का इतिहास अब भी स्वीकार नहीं करता.


राजा-रानी की कथाओं को इतिहास कहना दुनिया में बेशक बंद या कम हो गया हो, लेकिन भारत में इतिहास को राजवंशों की क्रमिक गाथा के रूप में ही पढ़ाया जाता है. मानो, उस विशेष कालखंड में राजाओं के अलावा कोई रहता ही न हो.


भारत के इतिहास को भी हमेशा सवर्ण पुरुष नज़रिए से लिखा और पढ़ा गया है. चूंकि लिखने वाले वही थे, तो लिखा भी वैसा ही गया है. लक्ष्मीबाई जेंडर डिवीज़न में कमज़ोर पक्ष में खड़ी थीं. लेकिन जाति विमर्श में वे सबसे मज़बूत खेमे में थीं. झलकारी बाई एक साथ जाति और जेंडर दोनों विमर्श के हाशिए पर थीं.


हालांकि बाद के दौर में सबॉल्टर्न हिस्ट्री लिखने की कोशिश की गई और इसे भी सवर्ण इतिहासकारों ने ही लिखा. लेकिन सबॉल्टर्न हिस्ट्री पूरे नैरेटिव के हाशिए में ही जगह दर्ज करा पाई. और फिर वह सबॉल्टर्न हिस्ट्री भी इसी नैरेटिव के तहत है कि मुख्यधारा में वंचितों की कितनी हिस्सेदारी थी. मुख्यधारा क्या थी, यह प्रभावशाली लोग ही तय करते हैं. मिसाल के तौर पर, सबॉल्टर्न हिस्ट्री ये बताने की कोशिश करती है कि गांधी के नेतृत्व में चल रहे स्वतंत्रता संग्राम में दलितों और पिछड़ों की या किसानों की कितनी हिस्सेदारी थी.


सबॉल्टर्न हिस्ट्री ये दर्ज नहीं करती कि अंग्रेज़ों से आज़ादी की लड़ाई के अलावा भारतीय समाज में इंसान बन कर रहने की एक बड़ी लड़ाई भी लड़ी जा रही थी. मणिकर्णिका में झलकारी बाई का साइड रोल में होना और आइटम सॉन्ग में डांसर बन जाना इसी इतिहास लेखन का नमूना है, जहां सिर्फ राजा-रानी के किस्से होते हैं और बाकी लोग या तो नहीं होते या फिर आइटम सॉन्ग बन जाते हैं.


पिछले दिनों राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद, जो खुद भी झलकारी बाई की ही जाति से आते हैं, ने भोपाल में उनकी विशाल प्रतिमा का अनावरण किया. झलकारी बाई की मूर्तियां अब देश के कई शहरों में लगी हैं. उनके नाम पर स्कूल, कॉलेज, पॉलिटेक्निक और आईआईटी के नाम रखे गए हैं. देर से ही सही, लेकिन देश उनकी महानता को स्वीकार कर रहा है. या फिर दलितों ने देश को मजबूर कर दिया है कि झलकारी बाई के महत्व को स्वीकार करें. इसके बावजूद झलकारी बाई अभी लोकस्मृति का हिस्सा नहीं बनी हैं. फिल्म में इस किरदार को निभाने वाली अंकिता लोखंडे से जब ये पूछा गया कि क्या इस किरदार को निभाने से पहले उन्होंने झलकारी बाई का नाम सुना था, तो उनका जवाब था- नहीं 


 

धन्यवाद

नमो बुद्धाय
 
                                                          बी.एल. बौद्ध

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