सूबेदार मेजर रामजी सकपाल का परिनिर्वाण दिवस 2 फरवरी 1913 को हुआ | भीमराव अंबेडकर जी के पिताजी राम जी सतपाल का जीवन इतिहास
सुबेदार मेजर रामजी सकपाल परिनिर्वाण दिवस :2 फरवरी..
(14.11.1843--2.2.1913)
2.2.1951 डॉ.अंबेडकर जी के भतीजे मुकुंदराव आनंदराव अंबेडकर जी का देहांत।
डॉ. भीमराव अम्बेडकर का पैतृक गाँव अम्बावाड़े महाराष्ट्र के रत्नागिरि जिले के छोटे शहर से पाँच मील दूरी पर है । उनके दादा मालोजी सकपाल ईस्ट इंडिया कंपनी के बम्बई सेना के हवलदार पद से सेवानिवृत्त हुए थे । उनका कहना था कि युद्ध में बहादुरी के एवज में उन्हें कुछ भूमि आवंटित की गई है । कहा जाता है कि मालोजी सकपाल की दो संताने रामजी (पुत्र) और मीरा बाई (पुत्री) थी ।
रामजी सकपाल का जन्म 14 नवम्बर 1843 को हुआ था ।
अपने पिता की तरह रामजी भी सेना में शामिल हो गये, उनके रेजि
रामजी सकपाल का जन्म 14 नवम्बर 1843 को हुआ था ।
अपने पिता की तरह रामजी भी सेना में शामिल हो गये, उनके रेजिमेंट के सूबेदार मेजर धर्मा मुखाडकर थे जो महार जाति के थे । मेजर धर्मा महाराष्ट्र के पाडे जिले के मुखाड गांव के निवासी थे । उनका परिवार क्षेत्र का सम्मानित परिवार था और उनके सभी सातो भाई ब्रिटिश सेना में महत्वपूर्ण ओहदों पर थे । धीरे-धीरे रामजी सकपाल और मेजर धर्मा मुखाडकर के बीच घनिष्ट संबंध स्थापित हुआ।
मेजर धर्मा ने अपनी बेटी भीमा मुखाडकर का विवाह रामजी सकपाल के साथ करने का निश्चय किया लेकिन आर्थिक असमानता के कारण मेजर धर्मा के परिवार के लोगों ने इस प्रस्ताव का विरोध किया । लेकिन अंत में सभी सहमत हो गये और 1865 में रामजी सकपाल तथा भीमा मुखाडकर का विवाह सम्पन्न हुआ । विवाह के समय रामजी सकपाल की उम्र 21 वर्ष और भीमा मुखाडकर की उम्र 13 वर्ष की थी उनका जन्म 14 फरवरी 1852 को हुआ था । भीमाबाई की गरीबी के कारण उनकी मां के अतिरिक्त उनके मायके से उनसे कोई मिलने नहीं आता था इसलिए उन्होंने अपने मायके वालों से संकल्प के साथ कहा कि मैं मायके तभी आऊंगी जब मै जेवरों से भरी पूरी अमीरी प्राप्त कर लूंगी।
रामजी सकपाल एक प्रबुद्ध व्यक्ति थे,.....
उन्होंने कड़ी मेहनत के द्वारा अंग्रेजी भाषा में प्रविणता प्राप्त कर ली थी। उन्होंने पूना में सेना नार्मल स्कूल से शिक्षण में डिप्लोमा प्राप्त किया । जिसके उपरान्त वे सैनिक स्कूल में शिक्षक नियुक्त हुए। उन्होंने प्रधानाचार्य के रूप में सेवा की और सूबेदार मेजर का पद प्राप्त किया। रामजी सकपाल अस्पृश्य महार जाति के कबीर पंथी थे।
रामजी सकपाल और भीमाबाई की कुल 14 संतानें हुई थी, भीमराव अम्बेडकर चौदहवीं संतान थे जिनका जन्म 14 अप्रैल 1891 को महू छावनी में हुआ था। हालांकि उनमें से केवल तीन बेटे बालाराव, आनन्दराव तथा भीमराव और दो बेटियां मंजुला तथा तुलसा जीवित रहे । जिसके कारण भीमाबाई अत्यंत दुखी रहती थी जिससे उनका स्वास्थ्य निरंतर गिरता गया। महाराष्ट्र में भक्ति आन्दोलन ने रामजी सकपाल के परिवार को अत्यधिक प्रभावित किया था। रामजी सकपाल आध्यामिकता को आत्मसात करने के लिए अपने बच्चों को सख्त धार्मिक वातावरण के तहत उनसे पूजा और गहन भक्ति कराई। जिसके कारण बचपन में भीमराव भक्ति गीत गाया करते थे। अपने बच्चों के प्रति रामजी सकपाल का रवैया मूलरूप से भीमराव के चतुर्दिक विकास के कारण था। रामजी अंग्रेजी और गणित में निपुण थे। वह पूर्णतया मद्यत्यागी थे और मुख्य रूप से उनकी दिलचस्पी अपनी विजय और बच्चों के आध्यात्मिक विकास में थी।
सूबेदार मेजर रामजी सकपाल को भीम के जन्म के एक वर्ष के भीतर ही बड़ी कठिनाईयों का सामना करना पड़ा । ब्रिटिश सरकार ने व्रिटिश सेना में महारों की भर्ती पर रोक लगा दी इसी से सूबेदार मेजर रामजी सकपाल को 1893 मे अनिवार्य सेवानिवृत्ति प्रदान कर दी गई तब भीमराव मात्र ढाई वर्ष के थे । जब भीमराव पांच वर्ष के हुए तो उनकी मां भीमाबाई ने भीम का नाम स्कूल में लिखाने की जिद कीं रामजी ने भीमराव का दापोली के प्राथमिक स्कूल में दाखिल करवा दिया।
सेवानिवृत्ती के पश्चात रामजी सकपाल को 50 रूपये मासिक पंशन मिलती थी। दापोली के अनुचित वातावरण व बच्चों की पढ़ाई को ध्यान में रखकर उन्होंने बम्बई का रूख किया जहां उन्हे कोई नौकरी नहीं मिली, अंततः वे सतारा आ गये और यहां उन्हें लोक निर्माण विभाग में स्टोरकीपर की नौकरी मिल गई । यहां उन्होंने आनंदराव व भीमराव को सतारा के कैम्प स्कूल में भर्ती कराया । इसी बीच रामजी सकपाल का तबादला कोरेगांव हो गया। वे अकेले ही कोरेगांव चले गये । सतारा आने के कुछ समय बाद भीमाबाई का बिमारी के कारण स्वास्थ्य निरंतर गिरता गया और अंततः 18 मई 1897 को उनका देहान्त हो गया उस समय भीमराव 6 वर्ष के थे । मां के देहान्त के बाद भीमराव का पालन बुआ मीराबाई ने किया, जो स्वयं अपंग थी।
अपनी पत्नी की मृत्यु के बाद रामजी सकपाल को जीवन की चुनौतियां अधिक विकराल दिखाई देने लगीं इसलिए बाध्य होकर उन्होंने जीजाबाई नामक एक विधवा से दूसरी शादी कर ली, जिसका भीमराव अम्बेडकर ने कड़ा विरोध किया था और अपनी सौतेली मां को कभी मां नहीं मान सके । बच्चों की देखभाल उनकी बुवा मीरा द्वारा किया गया । फिर भी रामजी सकपाल ने भीमराव की शिक्षा की महत्वाकांक्षा में कमी नहीं आने दिया । रामजी सकपाल बड़े ही दृढ़ निश्चयी थे, अपने बच्चों की भलाई के लिए विशेषरूप से भीमराव के बौद्धिक आकांक्षाओं की पूर्ति के लिए प्रतिबद्ध थे ।
1904 में रामजी सकपाल लोकनिर्माण विभाग से सेवानिवृत्त होने के पश्चात सपरिवार बम्बई आ गये तथा भीमराव को एलफिस्टन हाईस्कूल में दाखिला दिलाया । बम्बई में प्रवास के दौरान परेल में चावला सुधार ट्रस्ट के किराये के मकान के एक रूम में रामजी सकपाल ने विशेषरूप से भीमराव का अत्यधिक खयाल रखा । वे अपने पुत्र को जल्दी सोने के लिए कहते और स्वयं दो बजे रात्रि तक काम करते रहते थे । सोने से पहले अपने पुत्र को पढ़ने के लिए जगा देते थे । पिता के सानिध्य में भीमराव ने अनुवाद में प्रवीणता प्राप्त कर ली । अपने पिता की भाषाओं में अभिरूचि के कारण अंग्रेजी भाषा में भीमराव का ज्ञान अपने सहपाठियों की तुलना में अच्छा था ।
भीमराव अच्छी पुस्तकों के संग्रह के लालची थे, जिसमें उनके महान पिता का सहयोग बराबर रहा । प्रायः रामजी सकपाल अपनी बेटियों से उधार लेकर या उनको शादी के समय तोहफे के रूप में दिए गये गहनों को बंधक रखकर, जिसे वे सेवानिवृत्ति के बाद 50 रूपये अल्पराशि में मिलने वाले पेंशन से चुकता करते थे, उदारतापूर्वक समय समय पर नई पुस्तके भीमराव को उपलव्ध कराते थे । रामजी सकपाल को जब घर का खर्च चलाना कठिन हो गया तो उन्होंने आनंदराव की पढ़ाई बंद करवा दी थथा उसे जी.आई.पी. वर्कशाप में नौकरी पर लगवा दिया और थोड़े दिन पश्चात आनंदराव का विवाह करवा दिया । भीमराव भी जब सोलह वर्ष के थे तो उनका विवाह नौ वर्षीय रामी वालंगकार से 1907 को भायखला बाजार के खुले शेड में हुआ । विवाह के बाद बधू का नाम रमाबाई रखा गया।
14 अप्रैल 1907 को भीमराव ने मैट्रीक की परीक्षा पास की । उस समय एक अछूत लड़के का मैट्रिक पास करना बहुत बड़ी बात थी । भीमराव आम्बेडकर ने जब इन्टर की परीक्षा पास की तो उनके पिता के अंतस में प्रसन्नता और चिंता के भाव पैदा हुए, प्रसन्न इसलिए कि भीमराव इंटर पास करने में सफल रहे और चिंता इसलिए कि आर्थिक विपन्नता के कारण वह भीमराव की उच्च शिक्षा की व्यवस्था कैसे करेंगे ।
रामजी सकपाल को विल्सन हाई स्कूल के प्राचार्य कृष्णा जी अर्जुन केलुसकर का ध्यान आया जो भीमराव को पढ़ने के लिए किताबें दिया करते थे, जिनका बड़ौदा के महाराजा सयाजी गायकवाड़ से अच्छे संबंध थे । केलुसकर गुरूजी ने भीमराव को लेकर महाराज सयाजीराव गायकवाड़ के पास लेकर गये, जो उन दिनो बम्बई आये हुए थे और उनसे भीमराव के आगे की पढ़ाई के लिए छात्रवृति की सिफारिश की । महाराजा ने भीमराव के साक्षात्कार से संतुष्ट होने के बाद प्रतिमाह 25 रूपये की छात्रवृत्ति देना स्वीकार किया। जिसके फलस्वरूप 3 जनवरी 1908 को बम्बई के एलफिंस्टन कॉलेज में भीमराव ने दाखिला लिया।
भीमराव 14 अप्रैल 1912 में बी.ए. की परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद जनवरी 1913 में बड़ौदा राज्य सेना में लेफ्टीनेन्ट के रूप में बड़ौदा राज्य की सेवा की। भीमराव को बड़ौदा में 15 दिन ही हो पाये थे कि उन्हें एक तार मिला कि उनके पिता बम्बई में गम्भीर रूप से बिमार हैं। वे अपने पिता के स्वास्थ्य की देखभाल के लिए तुरंत बड़ौदा से चल दिए। अपने घर के रास्ते में वे सूरत में अपने पिता के लिए मिठाई लेने के लिए उतर गये और उनकी ट्रेन छूट गई। अगले दिन वे जब बम्बई पहुँचे तो वे मरते हुए पिता की नजरों के सामने भौचक्क खड़े थे।
मरते हुए आदमी की डूबती हुई लेकिन ढूंढती हुई आंखे अपने प्रिय बेटे पर जाकर रूक गई, जिसमें वह अपने विचारों, अपनी उम्मीदें तथा अपना अस्तित्व ढूंढते थे । वे अपने कमजोर हाथ को अपने पुत्र के पीठ पर ले गये और अगले ही पल मौत की खड़खड़ाहट उनके गले में थी। उनकी आंखे बंद हो गई और हाथ पैर स्थिर हो गये। भीमराव पर दुखों का पहाड़ टूट पड़ा, सांत्वना के शब्द उनके दिल को शान्त करने में विफल रहीं और उनका जोर जोर से विलाप करना उनके परिवार के सदस्यों को रोने से न सका। यह 2 फरवरी 1913 भीमराव अम्बेडकर के जीवन में सबसे दुखद दिन था।
इस प्रकार एक अछूत सूबेदार मेजर रामजी मालोजी सकपाल, जो अपने जीवन के अंत तक मेहनती, संयमी, धार्मिक तथा महत्वाकांक्षी थे, का अंत हो गया। वे पूर्ण आयु में लेकिन गरीबी और कर्ज में मरे; लेकिन उनका चरित्र अनुकरणीय था और वे अपने कबीले, देश और मानवता के लिए महान विरासत छोड़ गये । अपने पुत्र में सांसारिक प्रलोभन का विरोध करने के लिए इच्छाशक्ति का संचार करने के बाद और बेटे के समकालिनो में अध्यात्म की गहराई बहुत ही कम पाकर वे भीमराव को जीवन की लड़ाई लड़ने और अपने तरीके से दुनिया को सुधारने के लिए अपने पीछे छोड़ गये।
भीमराव के स्कूल के दिनों जो दपोली से शुरू हुआ से उनके बी.ए. की डिग्री पूरी होने तक, रामजी सकपाल उनके एक प्रेरणादायक दूत के रूप में खड़े रहे । रामजी भीमराव के मन और व्यक्तित्व को आकार देने के लिए उत्तरदायी थे । रामजी एक शिल्पकार की तरह धैर्य, भक्ति और समर्पण के साथ भीमराव के व्यक्तित्व की नक्काशी की । रामजी के द्वारा दिखाये गए रास्ते, भीमराव को स्वयं को विदेशों में शिक्षित और अपने विचारों को विकसित करने में, जो उन्हें दीन दुखियों के मुक्तिदाता बनाने में, मदद की । ठीक ही, डॉ. भीमराव अम्बेडकर ने अपनी पुस्तक “The problem of rupee”को अपने माता-पिता को उनकी शिक्षा के प्रति उनके बलिदान और आत्मज्ञान के लिए आभार की निशानी के रूप में समर्पित किया।
ऐसे महान व्यक्तित्व को शत शत नमन
जय भीम नमो: बुध्दाय
बी.एल. बौद्ध
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